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आधुनिक भारत में जातीय अस्पृश्यता का परिदृश्य - Riya Yadav

caste issue in india


भारत में अस्पृश्यता की प्रथा अभी भी प्रचलित है। भारतीय कानून प्रणाली इस मुद्दे का समाधान करने में विफल रही है। अस्पृश्यता का शाब्दिक अर्थ है-'ना छूना'।इसे सामान्य भाषा में "छुआछूत" भी कहते हैं।जब समाज का कोई समुदाय दूसरे समुदाय से कार्य,जाति, परंपरा अथवा रूढ़ि के आधार पर छुआछूत का व्यवहार करता है तथा उस समुदाय को सामूहिक रूप से अशुद्ध मानकर सार्वजनिक स्थलों में प्रवेश वर्जित करता है,इसे ही अस्पृश्यता कहते हैं।

भारत में प्राचीन समय से ही हिंदू समाज में वर्ण-व्यवस्था को माना गया। जाति व्यवस्था का सबसे प्राचीन उल्लेख 'ऋग्वेद' में मिलता है। वर्ण व्यवस्था ने समाज को चार वर्गों में वर्गीकृत किया: ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र। शूद्रों को 'अस्पृश्य' माना गया। इनके लिए 'दलित' शब्द का प्रयोग किया जाता है। "दलित" शब्द का अर्थ है- टूटा/बिखरा हुआ।दलितों को महात्मा गांधी जी ने "हरिजन" कहा। 'हरिजन' अर्थात भगवान के बच्चे।आज इनके लिए 'अनुसूचित जाति' शब्द का प्रयोग किया जाता है तथा अनुसूचित जनजाति के अंतर्गत आदिवासी लोग आते हैं। भारत में दलितों के खिलाफ भेदभाव के विभिन्न रूप थे। उन्हें सार्वजनिक सेवाओं जैसे-स्कूलों,मंदिरों,कुओं आदि का उपयोग करने की अनुमति नहीं थी। यहां तक की वे उच्च जाति के लोगों के पास उठ-बैठ भी नहीं सकते थे।

अस्पृश्यता की प्रथा को समाप्त करने के लिए कई आंदोलन हुए उनमें से एक था-(1933) हरिजन आंदोलन। इसका उद्देश्य निम्न वर्ग के लोगों के लिए सामाजिक,आर्थिक और राजनीतिक अधिकार प्राप्त करना था। डॉ.अंबेडकर,ज्योतिबा फुले,महात्मा गांधी उन प्रमुख नेताओं में से थे जिन्होंने अस्पृश्यता की प्रथा के उन्मूलन के लिए अथक संघर्ष किया।

आधुनिक भारत में अस्पृश्यता का परिदृश्य प्राचीन भारत से भिन्न है। भारतीय संविधान जातिगत विभेद पर प्रतिषेध लगाता है। संविधान की उद्देशिका में "प्रतिष्ठा व अवसर की समता"; अनुच्छेद 14- कानून के समक्ष समानता; अनुच्छेद 15 राज्य को निर्देश देता है कि वह धर्म,मूलवंश,जाति,लिंग,जन्म स्थान के आधार पर नागरिकों के प्रति भेदभाव नहीं करेगा;अनुच्छेद17 में अस्पृश्यता का उन्मूलन किया गया है और किसी भी रूप में इसका अभ्यास निषिद्ध है।अस्पृश्यता उन्मूलन के लिए 'अस्पृश्यता अपराध अधिनियम,1955' पारित किया गया।1976 में इसका नाम संशोधन कर 'सिविल अधिकार संरक्षण अधिनियम' कर दिया गया।1989 में अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति(अत्याचार निवारण) अधिनियम पारित किया गया। अनुसूचित जाति व जनजाति के लोगों को मुख्यधारा से जोड़ने के लिए आरक्षण भी दिया गया है। लोग शिक्षित हो रहे हैं और तर्कसंगत सोच अपना रहे हैं।शहरों में रहने वाले लोग आज के युग में भेदभाव के इस अभ्यास के प्रति कम संवेदनशील हैं। अस्पृश्यता की प्रथा ग्रामीण क्षेत्रों में ज्यादा मजबूत है।

आज भी अखबारों में दलितों के खिलाफ अत्याचार की खबरें आए दिन आती रहती हैं। 2015, कोलार के सरकारी स्कूल बच्चों ने दलित महिला द्वारा पकाया खाना खाने से इंकार कर दिया। 2018, गुजरात में घोड़ी चढ़ने के कारण एक दलित व्यक्ति की हत्या कर दी। कासगंज के एक ठाकुर बाहुल्य गांव, निजामपुर में दलित व्यक्ति को ठाकुरों की बस्ती से बारात निकालने के लिए कानूनी लड़ाई लड़नी पड़ी थी। 2019,उत्तराखंड में ऊंची जाति के व्यक्ति के साथ खाना खाने के जुर्म में दलित व्यक्ति जितेंद्र की पीट-पीटकर हत्या कर दी गई।

संवैधानिक प्रावधानों के बावजूद जाति पर आधारित भेदभाव आज भी कायम है। 2012 के राष्ट्रीय अपराध ब्यूरो के आधिकारिक सरकारी आंकड़े बताते हैं कि हर 16 मिनट में एक दलित के विरुद्ध अपराध होता है। हर दिन 4 दलित महिलाओं का रेप होता है। 37% दलित गरीबीरेखा से नीचे जीविकोपार्जन करते हैं। 54% दलित बच्चे कुपोषित हैं। दलितों को भारत के 28% गांव में पुलिस थाने जाने से रोका जाता है।दलितों के बच्चों को 39% सरकारी विद्यालयों में अलग बिठाकर भोजन खिलाया जाता है। भारत में लगभग 240 मिलियन जनसंख्या अनुसूचित जाति के लोगों की है, यह कुल जनसंख्या का 16.6% हिस्सा है। एक सर्वेक्षण के अनुसार राजस्थान के 50% व उत्तर प्रदेश के 48% लोगों ने यह स्वीकार किया कि वे अस्पृश्यता का अभ्यास करते हैं। आज भी लोगों के मन में दलितों के प्रति घृणा का भाव है।

माना कि कुछ अनुसूचित जाति व अनुसूचित जनजाति के कुछ लोगों ने राजनीति व अन्य क्षेत्रों में उच्च पद प्राप्त किए हैं परंतु यह प्रगति मामूली है। संविधान सभा में डॉ.अंबेडकर ने कहा था - "हम राजनीतिक समानता के युग में प्रवेश करने जा रहे हैं परंतु आर्थिक व सामाजिक रुप से हम अभी भी असमान रहेंगे। जब तक हम इस विरोधाभास का समाधान नहीं करेंगे,असमानता हमारे लोकतंत्र 
को नष्ट कर देगी।

अस्पृश्यता उन्मूलन हेतु मात्र कानून बना देना पर्याप्त नहीं है। जब तक समाज के लोग अपनी मानसिकता को नहीं बदलेंगे तब तक अस्पृश्यता को जड़ से समाप्त करना असंभव है। नि:संदेह जाति प्रथा एक सामाजिक कुरीति है। यह विडंबना ही है कि देश 

की आजादी के 73 वर्षों बाद भी हम जाति प्रथा के चंगुल से मुक्त नहीं हो पाए हैं। राजनेता दलितों को अक्सर वोट बैंक के रूप में इस्तेमाल करते हैं।भारत के अधिकांश हिस्सों में,विशेषकर ग्रामीण क्षेत्रों में जाति आधारित भेदभाव और हिंसा होती हैं।आज के समय में भारत के विकास हेतु यह अत्यंत महत्वपूर्ण है कि समाज में सभी लोगों को समानता प्राप्त हो और अस्पृश्यता जैसी कुप्रथा का अंत 
हो।

भवदीय,

9 टिप्‍पणियां:

  1. बेहद ही व्यवस्थित रूप में लिखा गया लेख जो आधुनिक भारत की सबसे बड़ी समस्याओं में से एक की गंभीरता को बखूबी समझा रहा है।
    Well done!!

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  2. समस्या को सिर्फ समझाने का कार्य ही नहीं किय, अपितु उससे जुड़े तथ्यों औऱ उदहारणों को भी बखूबी पेश किया है
    अति सुंदर लेख!!

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