सुबह होती है शाम होती है।
ऊम्र यूँ ही तमाम होती है।
आस क्या अब उम्मीद-ए-नाउम्मीद भी नहीं।
कौन दे मुझ को तस्सली कौन बहलाए मुझे।
मुंशी अमीरुल्लाह तस्लीम ने जब यह शेर लिखे होंगे तो शायद खुद भी नहीं सोचा होगा कि एक दौर आएगा जब हर शख्स उनकी शायरी को महसोस करेगा। अब जब ऊपर वाले ने जिंदगी और मौत के बीच का फासला इस कद्र कम कर दिया है, कि जीने का मकसद और ज़िन्दगी के मईना ही बदल गए हैं। हमे अब नए सिरे से सोचना पड़ेगा। सोचना पड़ेगा यह जो ज़िन्दगी हमे ऊपर वाले ने दी है उसका मतलब क्या है और अब जिंदा रहने के लिए हमे किस चीज़ के ज़रूरत है। क्योंकि पैसा कितना भी कमा लिया वो बेमानी हो जा रहा है। आज हालत यह हैं कि कितना भी पैसा देकर आप सांसें नहीं खरीद सकते हैं। हम मैं से बहुतों का मानना है कि ऊपर वाला हम से नाराज़ हो गया है गरज यह कि तोबा करो और उससे अपनी गलतियों की माफ़ी मांगो तो ज़रूर वो हमे हमारी पुरानी ज़िन्दगी लौटा देगा। कुछ हद तक मैं भी मानती हूँ पर इससे ज्यादा इत्तफाक नहीं रखती, क्योंकि वो इतना बेरहम नहीं हो सकता कि हमारी गलतियों और नादानियों को नज़रंदाज़ ना करे। असल बात तो यह है कि यह ज़िन्दगी तो हमारी है ही नहीं, अमानत है ऊपर वाले की। हम खुद सही रास्ते से भटक गए हैं और कसूरवार किसी और को ठहरा रहे हैं। उसने तो हमे पैदा भी एक ही सा किया और कोई फर्क नहीं बरता। मगर हम तो पैदा होते ही अलग-अलग फिरकों में बट जाते हैं, हमारा धर्म अलग होता है, हमारी पहचान अलग होती है, यहाँ तक की हमारी सोच भी अलग होती है। पैदा होते ही हमे नफ़रत की वेक्सीन दे दी जाती है और उस को हम अपनी ताकत समझने लगते हैं। इस बिखराव को समेटने के लिए कुछ तो करना ही था। बस यही काम ऊपर वाला कर रहा है। बहुत जल्द हम सब सिमट जाएंगे। सिमट जाएंगे सिर्फ दो जमातों में एक पॉजिटिव और एक नेगेटिव। एैसा कोई धर्म नहीं बचने वाला, जिसका हम चोला ओढ़े फिरते हैं, और समझते है की यही हमें आखरी मंजिल तक पहुँचाएगा। बचेगा तो सिर्फ एक ही धर्म, इंसानियत का धर्म, जिसके लिए ना तो किसी धर्म-गुरु की ज़रुरत होती है, ना किसी नेता की, ना मंदिर-मस्जिद की और ना बेशुमार दौलत की। जो दौलत हम ने अपनी आने वाली पुश्तों के लिए संभाल कर रखी है वो बेकार हो जानी है। तो अब हमें सोचना होगा कि पैसा कमाये या इंसान। क्योंकि इस मुसीबत के दौर में पैसा तो काम आया नहीं ना दवा मिली ना सहूलियात। काम आई तो बस इंसानियत, जिंदा रहे तो भी और मर गए तो भी। वरना क्या कभी ऐसा हुआ है कि किसी की अर्थी या जनाज़ा देख आप उस के साथ कम से कम दस कदम न चले हों। आज हम घर बैठे ही अफ़सोस मनाने को मजबूर हैं। हमे सोचना चाहिए की यह लड़ाई हम लड़ कर तो नहीं जीत सकते तो क्यों ना अपनी सोच बदल कर देखें। देखते हैं वो कब तक हमारा इम्तिहान लेगा। बात सिर्फ इतनी है कि अबसे हमें इंसान दोस्त कमाने हैं, दौलत नहीं, और बस हर रोज़ ज़िन्दगी को इस तरह जीना है जैसे यह ज़िन्दगी का आखरी दिन हो, क्योंकि अब हम को मालूम है कि असल ज़िन्दगी तो मरने के बाद शुरू होगी। तो क्यों ना उसकी थोड़ी तैयारी कर लें। क्योंकि ...
किश्तियाँ सब की किनारे पे पहुँच जाती हैं।
नाखुदा जिन का नहीं उन का खुदा होता है
फरहा दीबा, रूङकी
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