
रेप कल्चर या बलात्कार संस्कृति क्या है ?
बलात्कार संस्कृति एक वातावरण या संस्कृति है इसमें लिंग या कामुकता के बारे में सामाजिक दृष्टिकोण और कार्यों के कारण बलात्कार और यौन हिंसा को सामान्यीकृत किया जाता है। इस तरह की संस्कृति बलात्कार चुटकुले ,आकस्मिक यौनवाद , विषाक्त मर्दानगी की स्वीकृति, पीड़ित को दोष देने और महिलाओं के खिलाफ हिंसक कृत्य से फैली हुई है। भारत में इस तरह की संस्कृति की प्रकृति को आंतरिकता के लेंस के माध्यम से देखा जाना चाहिए। समुदाय जो ऐतिहासिक रूप सेेे हाशिए पर ,पिछड़े हुए रहे हैं और जाति, धर्म आदि के आधार पर भेदभाव का शिकार रहे हैं वे उत्पीड़न के उपकरण के रूप में यौन हिंसा का सामना करते हैं। उत्पीड़न और पीड़ित पर दोषारोपड़ के व्यवहार की सहनशीलता बलात्कार की संस्कृति के लिए वातावरण को सुविधाजनक बनाती हैं।
भारत में महिलाओं के खिलाफ बलात्कार चौथा सबसे आम अपराध है। एनसीआरबी की 2018 की वार्षिक रिपोर्ट के अनुसार भारत में 2018 में 33,356 से रेप केस रिपोर्ट किए गए। बाल एवं महिला विकास मंत्रालय द्वारा दिए गए आंकड़ों केे अनुसार, हर दस बलात्कार में से पांच ऐसे होते हैंं जो 10 साल या उससे भी कम उम्र की बच्चियों के साथ किए जाते हैं और उसमें बलात्कारी कोई घर का जान पहचान का ही व्यक्ति होता है। भारत में हर 22 मिनट में एक महिला का बलात्कार होता है।
16 दिसंबर 2012, निर्भया केस से आप सभी वाकिफ होंगे जिसने इंसानियत को शर्मसार कर दिया था। एक लड़की के साथ हुई बर्बरता ने समाज में महिलाओं और लड़कियोंं की सुरक्षा को लेकर एक साथ कई सवाल खड़े कर दिए और लोगों को सोचने पर मजबूर होना पड़ा कि आखिर हम कैसे समाज का हिस्सा है?
निर्भया के साथ हुई इस क्रूर हिंसा ने लोगों को सड़कों पर उतरने के लिए मजबूर कर दिया था। सभी इस हैवानियत के खिलाफ खड़े होकर अपना-अपना विरोध जता रहे थे। जगह-जगह कैंडल मार्च से लेकर भूख हड़ताल तक की खबरें मीडिया की सुर्खियां बन चुकी थी। जल्द और सख्त न्याय की मांग में चले एक लंबे संघर्ष के बाद अंततः दोषियों को फांसी की सजा हुई।
अब सवाल यह है कि क्या इतना काफी है? दोषियों को सजा मिलने से क्या हमारे समाज में रेप, गैंगरेप या यौनिक हिंसा पर रोक लग पाई है ?घटनाएं और उनकी खबरें वहीं रहती हैं ,बस घटना के शिकार और शिकारी बदल जाते हैं। 17 जनवरी 2018, कठुआ में एक 8 साल की बच्ची का बलात्कार कर उसकी हत्या कर दी गई। स्याही सूख भी नहीं पाती अखबारों की, कि फिर से एक और बलात्कार की घटना आ जाती है। आए दिन देश के किसी ना किसी कोने से बलात्कार की खबरें आती रहती हैं। कभी किसी महिला का तो कभी किसी बच्ची का बलात्कार होता है। लोगों में इंसानियत तो जैसे मर चुकी है। काफी बार तो बलात्कार कोई बाहर का व्यक्ति नहीं बल्कि कोई सगा-संबंधी ही करता है।
बलात्कार संस्कृति को बढ़ावा देता सिनेमा
फिल्मों के संदर्भ में अक्सर कहा जाता है कि फिल्में हमारे समाज का आईना होती है। वर्तमान हिंदी सिनेमा की तो कई फिल्मों में आज हम ऐसे गानों को सुन रहे हैं जो महिलाओं को वस्तु बनाकर प्रस्तुत कर रहे हैं। तंदूरी मुर्गी, पटाखा बम जैसे शब्दों का प्रयोग महिलाओं के लिए किया जा रहा है। फिल्मों ने महिलाओं का बाजारीकरण कर दिया है। फिल्मी गानों में यौनिक हिंसा को लोगों के सामने ऐसे परोसा जाता है कि वो अपराध से ज्यादा मनोरंजन लगने लगता हैं। एक गाने की लाइन है -"ये उसका स्टाइल होएगा होठों पर ना पर दिल में हां होयेगा" यह समाज में यह संदेश दे रहा है कि अगर लड़की ना भी करती है फिर भी उसका उत्तर हमेशा हां ही होता है। इस तरह से कई गानें भी आज कहीं ना कहीं रेप संस्कृति को बढ़ावा दे रहेे हैं।
रेप संस्कृति को बढ़ावा देते संकीर्ण विचारों वाले बयान
हमारे जनप्रतिनिधियों और प्रतिष्ठित हस्तियों के संकीर्ण सोच वाले बयानों, जैसे - "लड़कों से गलती हो जाती है, लड़के ही तो हैं" , "लड़कियों को उन पुरुषों के साथ बाहर नहीं जाना चाहिए जो उनके रिश्तेदार ना हो", "ऐसी घटनाएं इसलिए होती हैं क्योंकि लड़कियां छोटे कपड़े पहनती हैं", "वो हमारी एक लड़की के साथ करेंगे तो हम उनकी हजार लड़कियां उठाएंगे" , से समाज में बलात्कार जैसे जघन्य अपराध के प्रति लोगों में संवेदनशीलता ही खत्म हो गई है।
देश की कमजोर कानून और न्याय व्यवस्था
हमारे देश का कानून लचक है। अगर कानून सख्त हो तो शायद आपराधिक मामलों की संख्या बहुत कम हो जाए। कमजोर कानून और इंसाफ मिलने में देरी भी बलात्कार की घटनाओं के लिए जिम्मेदार है। देखा जाए तो प्रशासन और पुलिस कमजोर नहीं है ,कमजोर है उनकी सोच और समस्या से लड़ने की इच्छाशक्ति। पैसे वाले जब अपराधों के घेरे में आते हैं तो प्रशासनिक शिथिलताएं उन्हें कटघरे के बजाय बचाव के गलियारे में ले जाती हैं। पुलिस की लाठी बेबस पर जितने जुल्म ढहाती है सक्षम के सामने वही लाठी सहारा बन जाती है। अब तक कई मामलों में कमजोर कानून से अपराधी के बच निकलने के कई किस्से सामने आ चुके हैं। उन्नाव रेप केस के दोषी कुलदीप सेंगर को अभी तक कोई सख्त सजा नहीं मिली है शायद इसलिए क्योंकि वह एक विधायक है। कई बार सबूतों के अभाव में न्याय नहीं मिल पाता और अपराधी छूट जाता है। कई बार तो सालों तक केस चलता रहता है और पीड़ित को न्याय ही नहीं मिल पाता। एनसीआरबी की एक रिपोर्ट के अनुसार भारत में 24.2 प्रतिशत बलात्कारियों को ही उनके किए की सजा मिल पाती है।
वैवाहिक बलात्कार यानी मैरिटल रेप
भारत में उन 36 देशों में से एक है जहां वैवाहिक बलात्कार कानूनी ढांचे के भीतर एक अपराधिक अपराध नहीं है।भारतीय कानून में ना ही तो मैरिटल रेप को एक अपराध माना जाता है ना इसे आधार बनाकर कोई महिला तलाक की अर्जी दे सकती है। आमतौर पर समझा जाता है, वैवाहिक बलात्कार या जीवनसाथी द्वारा किया गया बलात्कार, पति या पत्नी की सहमति के बिना या किसी की इच्छा के खिलाफ सेक्स करना है। सहमति का अभाव एक आवश्यक तत्व है।
भारतीय दंड संहिता, 1860 की धारा 375 के अनुसार , जो पुरुष किसी स्त्री के साथ परिस्थितियों में से किसी परिस्थिति में सेक्स करता है, वह पुरुष बलात्कार करता है -
1. उस स्त्री की इच्छा के विरुद्ध।
2. उस स्त्री की सम्मति के बिना।
3. महिला की मर्जी से, लेकिन यह सहमति उसकी हत्या करने या नुकसान पहुंचाने या उसके किसी करीबी व्यक्ति के साथ ऐसा करने का डर दिखाकर हासिल की गई हो।
4. महिला की रजामंदी से, लेकिन महिला ने यह सहमति उस व्यक्ति से शादी होने के भ्रम में दी हो।
5. महिला की समहति से, लेकिन यह सहमति देते वक्त महिला की मानसिक स्थिति ठीक नहीं हो या फिर उस पर किसी नशीले पदार्थ का प्रभाव हो और महिला रजामंदी देने के परिणाम समझने की हालत में न हो।
भारतीय दंड संहिता की धारा 375 में प्रावधान है - "अपनी ही पत्नी जिसकी उम्र 15 से कम ना हो के साथ सेक्स करना बलात्कार नहीं है" जबकि धारा 375(6) के अनुसार, "किसी भी पुरुष द्वारा 16 वर्ष से कम उम्र की यूवती सहमति या असहमति से उसके साथ सेक्स करना बलात्कार है।"
अगर किसी महिला के साथ उसका पति बलात्कार करें तो इसे बलात्कार क्यों नहीं माना जाना चाहिए ?
केंद्र सरकार ने वैवाहिक बलात्कार को अपराध मानने से इंकार किया है और कहा है कि ऐसा करना विवाह की संस्था के लिए खतरा साबित होगा। यह एक ऐसा चलन बन सकता है, जो पतियों को प्रताड़ित करने का आसान जरिया बन सकता है। पर जरा सोचिए, यदि सरकार को यह डर है कि महिलाएं इसका दुरुपयोग कर सकती हैं तो देश के न्यायालय किस काम के लिए हैं क्या वे यह न्याय नहीं कर पाएंगे कि कौन सा केस झूठा है और कौन सा सच। सिर्फ यह एक बहाना देकर कि इस कानून का दुरुपयोग हो सकता है ,तो दुरुपयोग तो किसी भी कानून का हो सकता है ना ; कानून ना बनाना गलत है, उन हजारों महिलाओं के साथ अन्याय है जो वैवाहिक बलात्कार का शिकार होती हैं और उन्हें न्याय नहीं मिलता।
पितृसत्तात्मक सोच है असली जड़
हमारेेे समाज में सामूहिक बलात्कार का यदि विश्लेषण किया जाए तो हम यह पाते हैं कि कि इन सभी समस्याओं की मूल जड़ समाज की संकीर्ण पितृसत्तात्मक सोच है, जो महिलाओं के दमन में अपने पुरुषत्व को परिभाषित करती है। रेप तो हमारे कल्चर में है यह पितृसत्तात्मक संस्कृति का हिस्सा है। यह पितृसत्तात्मक सोच है, जिसमें महिला एक वस्तु से ज्यादा कुछ नहीं और समाज में वह एक उपभोग की चीज बन कर रह जाती है।
कई घरों में बलात्कार होते हैं लेकिन डर की वजह से कोई कुछ नहीं बोलता क्योंकि ज्यादातर मामलों में घर की सत्ता पुरुषों के हाथ में है।
अगर हमारे समाज में किसी महिला के साथ रेप या गैंगरेप होता है तो परिवार और समाज उस पर आरोपी से समझौता करने के लिए दबाव बनाते हैं। कई बार तो पुलिस भी पीड़ित महिला पर समझौते का दबाव डालकर केस ही दर्ज नहीं करती।
लड़कियों को देर रात बाहर नहीं घूमना चाहिए। उन्हें छोटे कपड़े नहीं पहने चाहिए। लड़कियों को घर में ही रहना चाहिए।लड़कियों को दूसरे लड़कों के साथ जो संबंधी ना हो उनके साथ नहीं जाना चाहिए। लड़कियों को शहर में अकेले नहीं रहना चाहिए लेकिन लड़के घूम सकते हैं, वो रह सकते हैं।
पिंक मूवी में अमिताभ बच्चन जी का एक डायलॉग है- "ना" सिर्फ एक शब्द नहीं अपने आप में पूरा वाक्य है इसे किसी स्पष्टीकरण, व्याख्यान या एक्सप्लेनेशन की जरूरत नहीं होती।लड़कों को समझना चाहिए कि ना का मतलब ना होता है।उसे बोलने वाली लड़की सेक्स वर्कर हो, फ्रेंड हो ,गर्लफ्रेंड हो,परिचित हो या उसकी अपनी बीवी ही क्यों ना हो। नहीं मतलब नहीं।
बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ का नारा सब लगा रहे हैं। अब कोई तो बोलो बेटों को भी समझाओ ,बेटों को भी सहनशील बनाओ , उन्हें महिलाओं का सम्मान करना सिखाओ।
Riya Yadav
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