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ये संवेदनाओं के मर जाने का दौर है | Lekhak Ki Lekhni

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किस्से-कहानियों में सुना है और पुरानी हिन्दी फिल्मों में देखा भी है कि जब कोई मरीज का परिजन डॉक्टर के पास मदद के लिए दौड़कर जाता था तो डॉक्टर भी ये देखे बिना कि वक्त क्या हुआ है और बाहर मौसम कैसा है और बिना इस बात की परवाह किये कि उसे उसकी फीस भी मिलेगी या नहीं हाथ में अपना बैग उठा उस परिजन के साथ मरीज को देखने चल पड़ता था। डॉक्टर के इसी सेवा भाव को देखते हुए उसे भगवान का दूसरा रूप भी कहा जाता है लेकिन आज स्थिति ठीक इसके उलट है। 

आज न तो मरीज बेवक्त डॉक्टर के पास सहायता के लिए जाने की हिम्मत जुटा पाता है और न ही पैसे के अभाव में उसका इलाज हो पाता है। इतना ही नहीं अस्पताल में जब किसी की मृत्यु हो जाती है तो उसके शव को भी बिल चुकाने के बाद ही परिजनों के हवाले किया जाता है। नोटबंदी के मौजूदा दौर में कई ऐसे उदाहरण है जब नवजात तक नए नोट न चुका पाने के चलते अपनी जान गवां बैठे और कई शवों को उनके परिजनों के हवाले नहीं किया गया। गाजियाबाद के गणेश अस्पताल में एक तीन दिन के बच्चे की मौत डॉक्टर और पैरामेडिकल स्टॉफ की लापरवाही से हो गई। उसके बाद भी बच्चे को वैंटिलेटर पर रखने के लिए परिजनों से स्वीकृति पत्र पर हस्ताक्षर करने का दबाव डाला गया। परिजनों ने जब यह पूछा कि बच्चे की स्थिति कैसी है तो डॉक्टर कहता है कि अभी सांसे हैं, जबकि सच्चाई यह थी कि बच्चे की सांसे रूक चुकी थीं। बच्चा सामान्य स्थिति में अस्पताल में भर्ती कराया गया था। बच्चे की मौत किस कारण से हुई इस बात का कोई मुक्कमल जवाब डॉक्टर और अस्पताल के प्रबंधन के पास नहीं था। डॉक्टर्स की इस लापरवाही की सूचना बच्चे के पिता ने पुलिस को भी दी लेकिन पुलिस भी अस्पताल के सुर में सुर मिलाती नजर आई। न तो डॉक्टर को और न ही पुलिस को इस बात की कोई फिक्र थी कि उस मां पर इस वक्त क्या गुजर रही होगी जिसने 9 महीने तमाम तरह की पीड़ाओं को सहकर इस बच्चे को जन्म दिया था और उससे हजारों सपने अपनी जिन्दगी में संजोये थे। अस्पताल को अपने बिल और दरोगा जी को अपने सुविधा शुल्क की चिंता थी।

सही मायनों में ये दौर संवेदनाओं के मर जाने का दौर है, जहां इंसानी जान की कीमत पैसों के आगे कुछ भी नहीं।
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Hindi Article Lekhak ki Lekhni
लेखक - भूमेश शर्मा 
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